Singrauli Displaced : विस्थापन को लेकर NCL की नई योजना! अब विस्थापितों को बसना होगा खुद 

Singrauli Displaced :  जयंत एवं दूधिचुआ खदान के विस्तार के लिए धारा 9 लगे करीब एक वर्ष होने वाले हैं। इस बीच विस्थापन मंच के पदाधिकारी ने बताया कि इसे लेकर बीते दिनों एनसीएल द्वारा जारी की गई 34 पन्नों की बुकलेट का मुख्य शीर्षक रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटेलमेंट स्कीम रखा गया था जिसमे विस्थापन समेत तमाम जानकारियाँ थीं पर बुकलेट के पृष्ठ क्रमांक 4 पर पढ़ने से पता चलता है कि इस स्कीम का नाम और मकसद विस्थापितों का सेल्फ रिसेटेलमेंट है जो मोरवा से होने वाले विस्थापितों को आगाह करते हुए उल्लेख करता है कि इस 50 हजार आबादी वाले शहर जिसमें करीब इतने ही लोग बेघर होंगे उन्हें डिसोल्यूशन (उजाड़ने का काम) और जिम्मेदारी तो NCL ने अपने कंधों पर उठा रखी है पर विस्थापन के बाद विस्थापितों को स्वयं से बसने की सलाह दी गई। हालांकि यह केवल सलाह नहीं क्योंकि प्रबंधन द्वारा अभी तक की प्रक्रिया को देखकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है।

कानून के जानकार इस स्कीम सेल्फ रिसेटेलमेंट को भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में खोजने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके तहत विस्थापन एवं पुनर्वास होना है। लेकिन यह शब्द न मिलने से यह लोग भी पशु पेश में हैं। जानकारों का कहना है कि कानून में कोई ऐसा अमेंडमेंट(बदलाव) हुआ ही नहीं। फिर आखिर एनसीएल ने अपने से ही इस बारे में क्यों उल्लेख कर दिया।

विस्थापन मंच के पदाधिकारियों ने बताया कि स्कीम में उल्लेख है कि NCL जयंत के MGR और रेल माध्यम से कोयला आपूर्ति तीन चार वर्षो में बंद हो जाएगी और राजकीय कोष में करीब 2430 करोड़ का योगदान प्रभावित हो जाएगा। अगर मोरवा का विस्थापन सफलतापूर्वक हो जाता है तो जयंत खदान से वर्तमान उत्पादन 30 एमटीपीए से बढ़कर 38 एमटीपीए हो जाएगा और जयंत खदान करीब 3000 करोड रुपए प्रति वर्ष सरकारी खजाने में दे पाएगी। इस सफलता को पाते हुए एनसीएल मैनेजमेंट की टीम को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए मोरवा का विस्थापन हर हाल में करना अति आवश्यक है। एनसीएल हर तबके और हर वर्ग के लिए कुछ ना कुछ देने की चर्चा इस स्कीम में कर रहा है। उनके अनुसार किसी को भी धन की कमी नहीं होने देगा पर मोरवा विस्थापन के दूरगामी परिणाम बेरोजगारी और पलायन से अपने को इतर रखते हुए पुनर्वास से भी पैसा देकर अपना पल्ला जड़ना चाहता है।

मोरवा के सर्वेक्षण को लेकर भी NCL  मैनेजमेंट के अपने पास उपलब्ध टीम पर भरोसा न होने की वजह से ही सर्वेक्षण एवं नापी का कार्य प्राइवेट कंपनी की टीम (TISS) से कराया जा रहा है। वह भी सही कार्य का आदेश प्राप्त न होने और समय पर भुगतान न होने के कारण कार्य में नियमित नहीं रह पा रही है। यही कारण है कि 1 जुलाई से 30 दिसंबर तक खत्म हो जाने वाले इस सर्वेक्षण के कार्य को जनवरी के शुरू में भी आधे पर नहीं पहुंचा जा सका है।

यहां से विस्थापन की जद में आने वाले शासकीय, अशासकीय स्कूल, बैंक, विद्युत वितरण कार्यालय, नगर निगम, पोस्ट ऑफिस, थाना इत्यादि व इस तरह के और कई अन्य दर्जनों प्रतिष्ठान कहां जाएंगे इसकी कोई योजना नहीं बनी। शासकीय तो ठीक है लेकिन जो निजी सेवाओं में वर्षों से कार्यरत हैं उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है। समस्या यह भी रहेगी कि स्कूल के बीच विस्थापन जारी रहेगा तो बच्चों का दाखिला कहां होगा। आसपास किसी स्कूल में इतनी क्षमता नहीं है यहां के सारे बच्चे वहां दाखिला पा सकें। फिर बड़ी चिंता यह भी रहेगी कि स्वयं से कहीं बसें तो बच्चों को स्कूल कैसे ले जाएं। इन सभी समस्याओं का अभी कोई हल नजर नहीं आता दिख रहा।

मुआवजा निर्धारण 2020-21 की कलेक्टर गाइडलाइन पर होना है और विस्थापितों को नई भूमि होने पर पंजीयन शुल्क एवं अतरिक्त खर्च आदि खर्च जो औसतन तीन चार लाख रुपए तक लग जाएंगे। वह भी लोगों को ही देना होगा। इसी प्रकार भवन का मूल्यांकन भी 2020-21 के पीडब्ल्यूडी रेट से ही किया जाना है। नए निर्माण में जो सामग्री क्रय की जाएगी, उसमें 12% से लेकर 18% तक अतिरिक्त वर्तमान मूल्य पर खर्च लगेगा पर इन सब बातों पर गौर न करते हुए एनसीएल केवल विस्थापन को लेकर सजक दिख रहा है। एनसीएल विस्थापितों को हितों की चिंता के लिए गंभीर नहीं दिख रहा तो जिला कलेक्टर को संविधान के अनुरूप विधि पूर्वक निर्देश जारी करना चाहिए, ऐसा यहां के लोगों का मानना है। इसी प्रकार नगर निगम को भी अच्छा मुआवजा तो मिल जाएगा लेकिन राजस्व का भारी आर्थिक नुकसान होना तय लग रहा है। अतः नगर निगम को भी एक रचनात्मक सोच के साथ कुछ ऐसा करना चाहिए कि बसा बसाया यह शहर उजड़े तो विलुप्त ना हो जाए। ऐसा ना हो कि मोरवा का नाम और निशान मिट जाए बल्कि इसके विपरीत कहीं नया शहर बसाया जाए जिससे उसका राजस्व और बढ़े।

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